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शाम के छह बजने को थे। श्री सिद्ध पीठ दंडी स्वामी मंदिर का परिसर राधे-राधे की मधुर ध्वनि से गूंज रहा था। राम राघव कर क्षमा, कृष्ण केशव पाहिमाम… जैसे भजनों पर श्रद्धालु झूम रहे थे। हवा में अगरबत्ती की महक थी, घी के दीयों की लौ हल्की-हल्की कांप रही थी और वातावरण में एक अलौकिक शांति घुली हुई थी।
तभी मंदिर के द्वार पर जयकारों की गूंज उठी-गीता मनीषी स्वामी ज्ञानानंद महाराज की जय! महाराज के प्रवेश करते ही भीड़ में एक आदर भरा सन्नाटा छा गया। भक्त उनके चरणों में झुके जा रहे थे। ठीक शाम 6:05 बजे महाराज गद्दी पर विराजमान हुए। जैसे ही उन्होंने ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः का उच्चारण किया, पूरा परिसर मंत्रों की ध्वनि से गूंज उठा।
मानो हर दीवार, हर दीपक और हर हृदय उस स्वर में एक साथ शामिल हो गया हो। कुछ ही क्षणों बाद उन्होंने गीता प्रवचन आरंभ किया। उनकी वाणी को सुनकर ऐसा लगा मानो श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन को उपदेश दे रहे हों। महाराज बोले – गीता केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, यह जीवन जीने की सर्वोत्तम शिक्षा है। जो गीता के सिद्धांतों को समझ लेता है, वह हर परिस्थिति में शांत, संतुलित और प्रसन्न रह सकता है।
श्रद्धालु मौन थे, सिर झुके हुए थे। महाराज आगे बोले कर्म करो, लेकिन फल की चिंता मत करो। हर कार्य प्रभु को समर्पित करो। सफलता तुम्हारी नहीं, प्रभु की कृपा का परिणाम है। अहंकार वही दीवार है, जो इंसान को ईश्वर से दूर कर देती है। उनकी आवाज़ में दृढ़ता थी, लेकिन भावों में अपार कोमलता। उन्होंने कहा कि मुश्किलें जीवन में आती हैं, पर उनसे डरना नहीं चाहिए। उन्हें मुस्कान और विश्वास के साथ स्वीकार करो। गीता सिखाती है कि हर परिस्थिति भगवान की लीला है, जो हमें कुछ सिखाने आती है। मंदिर का वातावरण पूरी तरह भक्ति में डूब चुका था। हर चेहरा स्थिर था, हर मन शांत था। महाराज ने आगे कहा कि मन को ईर्ष्या, द्वेष और क्रोध से मुक्त करो।
यही विचार मनुष्य की शांति छीन लेते हैं। रात के साढ़े आठ बजे जब प्रवचन समाप्त हुआ, तब तक कोई भी व्यक्ति अपनी जगह से हिला नहीं था। ऐसा लगा मानो हर भक्त के भीतर कोई दिव्य ऊर्जा जाग उठी हो। वातावरण में भक्ति का सौंधा-सा एहसास तैर रहा था- शांत, गहरा और गीता के शब्दों जितना पवित्र।



